- पेड़
पेड़,
अगर तुम होते
सतपुड़ा के घने जंगलों में,
डूबे होते नींद में
मस्ती में अनमने से ऊँघते,
जाग कर लहराते यूँ
अपनी ही नाद में झूमते.
मिलाते अपनी बाँहें अपनों से
जुड़ जाते एक-दूजे के सपनों से,
पशु-पक्षी तीतर-बटेर
तुम पर अपने मन को फेर
इस तरह रम जाते मानो
अपने-से हो जाते.
क्यों हो इस शहर में तुम
जहाँ
धूल, गंदगी और धूप में तपकर
दिन रात उदास रहते हो,
अपनों का कुछ पता नहीं है
भीड़ से निराश रहते हो.
मनुष्यों को जगाओ ऐसे
दिखे हर कोई तुमसे जुड़ा
लगे मन से कांक्रीट नहीं
हो जायें यूँ ज्यों सतपुड़ा.
__________________ भास्कर रौशन - अगर पेड़ भी चलते होते
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते,
बाँध तने में उसके रस्सी
चाहे जहाँ कहीं ले जाते.
जहाँ कहीं भी धूप सताती
उसके नीचे झट सुस्ताते,
जहाँ कहीं वर्षा हो जाती
उसके नीचे हम छिप जाते.
लगती भूख यदि अचानक
तोड़ मधुर फल उसके खाते,
आती कीचड़ बाढ़ कहीं तो
झट उसके ऊपर चढ़ जाते.
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते.
____________रचनाकार: दिविक रमेश - यह कदंब का पेड़
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे.
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली.
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता.
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता.
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता.
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे.
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता.
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं.
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे.
______________________रचनाकार: सुभद्राकुमारी चौहान - अक्कड मक्कड
अक्कड मक्कड ,
धूल में धक्कड,
दोनों मूरख,
दोनों अक्खड,
हाट से लौटे,
ठाट से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे .
बात बात में बात ठन गयी,
बांह उठीं और मूछें तन गयीं.
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढी खींची.
अब वह जीता,अब यह जीता;
दोनों का बढ चला फ़जीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे -
सबके खिले हुए थे चेहरे !
मगर एक कोई था फक्कड,
मन का राजा कर्रा - कक्कड;
बढा भीड को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड कर.
अक्कड मक्कड ,
धूल में धक्कड,
दोनों मूरख,
दोनों अक्खड,
गर्जन गूंजी,रुकना पडा,
सही बात पर झुकना पडा !
उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लडने में मत खोऒ
चलो भाई चारे को बोऒ!
खाली सब मैदान पडा है,
आफ़त का शैतान खडा है,
ताकत ऐसे ही मत खोऒ,
चलो भाई चारे को बोऒ.
______________________ भवानीप्रसाद मिश्र - तिल्ली सिंह
तिल्ली सिंह
पहने धोती कुरता झिल्ली
गमछे से लटकाये किल्ली
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह जा पहुँचे दिल्ली
पहले मिले शेख जी चिल्ली
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली
बिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली
उसने धर दबोच दी बिल्ली
मरी देख कर अपनी बिल्ली
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली
लेकर लाठी एक गठिल्ली
उसे मारने दौड़ा चिल्ली
लाठी देख डर गया तिल्ली
तुरत हो गयी धोती ढिल्ली
कस कर झटपट घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह ने छोड़ी दिल्ली
हल्ला हुआ गली दर गल्ली
तिल्ली सिंह ने जीती दिल्ली!
_________________________________रामनरेश त्रिपाठी - जब सूरज जग जाता है
आँखें मलकर धीरे-धीरे
सूरज जब जग जाता है ।
सिर पर रखकर पाँव अँधेरा
चुपके से भग जाता है ।
हौले से मुस्कान बिखेरी
पात सुनहरे हो जाते ।
डाली-डाली फुदक-फुदक कर
सारे पंछी हैं गाते ।
थाल भरे मोती ले करके
धरती स्वागत करती है ।
नटखट किरणें वन-उपवन में
खूब चौंकड़ी भरती हैं ।
कल-कल बहती हुई नदी में
सूरज खूब नहाता है
कभी तैरता है लहरों पर
----------------रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ - चांद एक दिन
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो मा मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!
----------------- रचनाकार: रामधारी सिंह "दिनकर" - खुली पाठशाला फूलों की
खुली पाठशाला फूलों की
पुस्तक-कॉपी लिए हाथ में
फूल धूप की बस में आए
कुर्ते में जँचते गुलाब तो
टाई लटकाए पलाश हैं,
चंपा चुस्त पज़ामें में है -
हैट लगाए अमलताश है ।
सूरजमुखी मुखर है ज़्यादा
किंतु मोंगरा अभी मौन है,
चपल चमेली है स्लेक्स में
पहचानों तो कौन-कौन है ।
गेंदा नज़र नहीं आता है
जुही कहीं छिपाकर बैठी है,
जाने किसने छेड़ दिया है -
ग़ुलमोहर ऐंठी-ऐंठी है ।
सबके अपने अलग रंग हैं
सब हैं अपनी गंध लुटाए,
फूल धूप की बस में आए -
मुस्कानों के बैग सजाए ।
---------------रचनाकार: डा तारादत्त निर्विरोध
Wednesday, May 21, 2008
बोल सुहाने
Posted by अपराजिता 'अलबेली' at 12:04 PM
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1 comments:
अपराजिता जी,
समय निकाल कर 'बाल-उद्यान' देखें और अपनी रचनाओं से सहयोग दें।
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