अगर पेड़ भी चलते होते कितने मज़े हमारे होते, बाँध तने में उसके रस्सी चाहे जहाँ कहीं ले जाते. जहाँ कहीं भी धूप सताती उसके नीचे झट सुस्ताते, जहाँ कहीं वर्षा हो जाती उसके नीचे हम छिप जाते. लगती भूख यदि अचानक तोड़ मधुर फल उसके खाते, आती कीचड़ बाढ़ कहीं तो झट उसके ऊपर चढ़ जाते. अगर पेड़ भी चलते होते कितने मज़े हमारे होते.
*रचनाकार: दिविक रमेश
इब्नबतूता
इब्नबतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में थोड़ी हवा नाक में घुस गई घुस गई थोड़ी कान में कभी नाक को, कभी कान को मलते इब्नबतूता इसी बीच में निकल पड़ा उनके पैरों का जूता उड़ते उड़ते जूता उनका जा पहुँचा जापान में इब्नबतूता खड़े रह गये मोची की दुकान में.
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