चादर ओढ़ी कम्बल ओढ़ा
ओढ़ी बड़ी रजाई
थर थर काँपे फिर भी काया
सुनो दिसम्बर भाई
चिंकी पिंकी जान जगन क्या
दद्दा जी बेचारे
स्वेटर जरसी कोट पहन सब
इस जाड़े से हारे
थके परिंदे भी मौसम से
कर कर हाथापाई
कुहरा पाला ठिठुरन पग पग
सूरज छिपा कहीं है
हवा चीखती कानों कानों
दिखती धूप नहीं है
उस पर देख घटाएँ नभ में
धरती ही घबराई
नौ दो ग्यारह हुई अचानक
तन मन की सब मस्ती
कभी न देखा ऐसा जाड़ा
बोल उठी हर बस्ती
कितनी और बढ़ेगी अब भी
रातों की लंबाई
सुनो दिसम्बर भाई
________________गीत भगवती प्रसाद गौतम जी से साभार
Tuesday, December 29, 2009
दिसम्बर भाई
Posted by अपराजिता 'अलबेली' at 3:55 AM
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