Saturday, July 12, 2008

पेड़

अगर तुम होते
सतपुड़ा के घने जंगलों में,
डूबे होते नींद में
मस्ती में अनमने से ऊँघते,
जाग कर लहराते यूँ
अपनी ही नाद में झूमते.
मिलाते अपनी बाँहें अपनों से
जुड़ जाते एक-दूजे के सपनों से,
पशु-पक्षी तीतर-बटेर
तुम पर अपने मन को फेर
इस तरह रम जाते मानो
अपने-से हो जाते.

क्यों हो इस शहर में तुम
जहाँ
धूल, गंदगी और धूप में तपकर
दिन रात उदास रहते हो,
अपनों का कुछ पता नहीं है
भीड़ से निराश रहते हो.
मनुष्यों को जगाओ ऐसे
दिखे हर कोई तुमसे जुड़ा
लगे मन से कांक्रीट नहीं
हो जायें यूँ ज्यों सतपुड़ा.

__________________ भास्कर रौशन

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